गुनाह
आज फिर आ ही गया
आज फिर रूह पे वो छा ही गया
दी मिरे घर पे शिकस्त आ के मुझे!
होश आया तो मैं दहलीज़ पे उफ़्तादा था
ख़ाक-आलूदा ओ अफ़्सुर्दा-ओ-ग़मगीन-ओ-नेज़ार
पारा-पारा थे मिरी रूह के तार
आज वो आ ही गया
रौज़न-ए-दर से लरज़ते हुए देखा मैं ने
ख़ुर्म-ओ-शाद सर-ए-राह उसे जाते हुए
सालहा-साल से मसदूद था याराना मेरा
अपने ही बादा से लबरेज़ था पैमाना मिरा
उस के लौट आने का इम्कान न था
उस के मिलने का भी अरमान न था
फिर भी वो आ ही गया
कौन जाने के वो शैतान न था
बेबसी मेरे ख़ुदा-वंद की थी!
(360) Peoples Rate This