अंधा कबाड़ी
शहर के गोशों में हैं बिखरे हुए
पा-शिकस्ता सर-बुरीदा ख़्वाब
जिन से शहर वाले बे-ख़बर!
घूमता हूँ शहर के गोशों में रोज़ ओ शब
कि उन को जम्अ कर लूँ
दिल की भट्टी में तपाऊँ
जिस से छट जाए पुराना मैल
उन के दस्त-ओ-पा फिर से उभर आएँ
चमक उट्ठें लब ओ रुख़्सार ओ गर्दन
जैसे नौ-आरास्ता दूल्हों के दिल की हसरतें
फिर से इन ख़्वाबों को सम्त-ए-रह मिले!
''ख़्वाब ले लो ख़्वाब....''
सुब्ह होते चौक में जा कर लगाता हूँ सदा
ख़्वाब असली हैं कि नक़ली?''
यूँ परखते हैं कि जैसे उन से बढ़ कर
ख़्वाब-दाँ कोई न हो!
ख़्वाब-गर मैं भी नहीं
सूरत-गर-ए-सानी हूँ बस
हाँ मगर मेरी मईशत का सहारा ख़्वाब हैं!
शाम हो जाती है
मैं फिर से लगाता हूँ सदा
मुफ़्त ले लो मुफ़्त, ये सोने के ख़्वाब''
''मुफ़्त'' सुन कर और डर जाते हैं लोग
और चुपके से सरक जाते हैं लोग
''देखना ये ''मुफ़्त'' कहता है
कोई धोका न हो?
ऐसा कोई शोबदा पिन्हाँ न हो?
घर पहुँच कर टूट जाएँ
या पिघल जाएँ ये ख़्वाब?
भक् से उड़ जाएँ कहीं
या हम पे कोई सेहर कर डालें ये ख़्वाब
जी नहीं किस काम के?
ऐसे कबाड़ी के ये ख़्वाब
ऐसे ना-बीना कबाड़ी के ये ख़्वाब!!''
रात हो जाती है
ख़्वाबों के पुलंदे सर पे रख कर
मुँह बिसोरे लौटता हूँ
रात भर फिर बड़बड़ाता हूँ
''ये ले लो ख़्वाब....''
''और ले लो मुझ से इन के दाम भी
ख़्वाब ले लो, ख़्वाब
मेरे ख़्वाब
ख़्वाब मेरे ख़्वाब
ख़्वाब
इन के दाम भी''
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