नूह बैठे हैं चारपाई पर
चारपाई पे नूह बैठे हैं
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मुझ को ये फ़िक्र कि दिल मुफ़्त गया हाथों से
ये नया ज़ुल्म नई तर्ज़-ए-जफ़ा है कि नहीं
आते आते राह पर वो आएँगे
मज़हब-इश्क़-ओ-वफ़ा मुझ को ये देता है सलाह
भरी महफ़िल में उन को छेड़ने की क्या ज़रूरत थी
हमेशा तमन्ना-ओ-हसरत का झगड़ा हमेशा वफ़ा-ओ-मोहब्बत का हुल्लड़
किसी बे-दर्द को ज़ुल्म-ओ-सितम का शौक़ जब होगा
फ़रोग़-ए-हुस्न में क्या बे-सबात दिल का वजूद
दिल में घुट घुट कर इन्हें रहते ज़माना हो गया
दूँगा जवाब मैं भी बड़ी शद्द-ओ-मद के साथ
बतौर-ए-यादगार-ए-ज़ोहद मय-ख़ाने में रख देना
आमाज-गाह-ए-तीर-ए-सितम कौन हम कि आप