मुझ को ख़याल-ए-अबरू-ए-ख़मदार हो गया
ख़ंजर तिरा गले का मिरे हार हो गया
Anwar Masood
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Gulzar
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ऐ 'नूह' न तर्क-ए-शाएरी हो
मौसम-ए-गुल अभी नहीं आया
ख़ुदा के सज्दे बुतों के आगे फिर ऐसे सज्दे कि सर न उट्ठे
इश्क़ में कुछ नज़र नहीं आया
आमाज-गाह-ए-तीर-ए-सितम कौन हम कि आप
सत्या-नास हो गया दिल का
जो अहल-ए-ज़ौक़ हैं वो लुत्फ़ उठा लेते हैं चल फिर कर
उस बुत-ए-काफ़िर को उन का ध्यान क्या है कुछ नहीं
हमारे दिल से क्या अरमान सब इक साथ निकलेंगे
कम्बख़्त कभी जी से गुज़रने नहीं देती
बहर-ए-ग़म में दिल का क़रीना
अभी कम-सिन हैं मालूमात कितनी