ख़ुदा के सज्दे बुतों के आगे फिर ऐसे सज्दे कि सर न उट्ठे
अजब तरह की हमारी निय्यत नई तरह की नमाज़ में है
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ऐ 'नूह' आते जाते हैं दोनों घरों में हम
ये समाँ ये लुत्फ़ ये दिल-चस्प मंज़र देख कर
ख़याल में इक न इक मज़े की नई कहानी है और हम हैं
लैला है न मजनूँ है न शीरीं है न फ़रहाद
इस कम-सिनी में हो उन्हें मेरा ख़याल क्या
नूह बैठे हैं चारपाई पर
जाने को जाए फ़स्ल-ए-गुल आने को आए हर बरस
सवाल-ए-वस्ल पे उज़्र-ए-विसाल कर बैठे
नाकाम-ए-नशात-ए-ऐश-ओ-ख़ुशी हर वक़्त के रंज-ओ-ग़म ने किया
आप आए बन पड़ी मेरे दिल-ए-नाशाद की
पामाल हो के भी न उठा कू-ए-यार से
भरी महफ़िल में उन को छेड़ने की क्या ज़रूरत थी