काबा हो कि बुत-ख़ाना हो ऐ हज़रत-ए-वाइज़
जाएँगे जिधर आप न जाएँगे उधर हम
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कह रही है ये तिरी तस्वीर भी
उन से गर फ़ैज़याब हो जाता
आप के दिल का मिरे दिल का नफ़ाज़
साक़ी जो दिल से चाहे तो आए वो ज़माना
कोई यहाँ से चल दिया रौनक़-ए-बाम-ओ-दर नहीं
जब ज़िक्र किया मैं ने कभी वस्ल का उन से
मैं कोई हाल-ए-सितम मुँह से कहूँ या न कहूँ
महफ़िल में तेरी आ के ये बे-आबरू हुए
दिल में घुट घुट कर इन्हें रहते ज़माना हो गया
माजरा-ए-क़ैस मेरे ज़ेहन में महफ़ूज़ है
लैला है न मजनूँ है न शीरीं है न फ़रहाद