जिगर की चोट ऊपर से कहीं मा'लूम होती है
जिगर की चोट ऊपर से नहीं मा'लूम होती है
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ख़ाक हो कर ही हम पहुँच जाते
मोहब्बत का अच्छा नतीजा न देखा
असीरान-ए-क़फ़स को वास्ता क्या इन झमेलों से
मुझ को ख़याल-ए-अबरू-ए-ख़मदार हो गया
न मिलो खुल के तो चोरी की मुलाक़ात रहे
क्या कहूँ हम-नशीं ये मेरा भाग
नूह बैठे हैं चारपाई पर
अभी उस क़यामत को मैं क्या कहूँ
हर तलबगार को मेहनत का सिला मिलता है
वो बात क्या जो और की तहरीक से हुई
हज़ारों रंज-ए-दिल दे दे के माशूक़ों को झेले हैं
हुस्न को शक्लें दिखानी आ गईं