हमें इसरार मिलने पर तुम्हें इंकार मिलने से
न तुम मानो न हम मानें न ये कम हो न वो कम हो
Wasi Shah
Gulzar
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Habib Jalib
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वाह ये लुत्फ़-ए-सोज़-ए-उल्फ़त किस की बदौलत दिल की बदौलत
कह रही है ये तिरी तस्वीर भी
दिल जो दे कर किसी काफ़िर को परेशाँ हो जाए
रह-ए-तलब में बने वो नश्तर इधर से जाते उधर से आते
ताब नहीं सुकूँ नहीं दिल नहीं अब जिगर नहीं
कोई उस सितमगर को आगाह कर दे कि बाज़ आए आज़ार देने से झट-पट
हमेशा तमन्ना-ओ-हसरत का झगड़ा हमेशा वफ़ा-ओ-मोहब्बत का हुल्लड़
चाहिए थी शम्अ इस तारीक घर के वास्ते
मैं किसी शोख़ की गली में नहीं
नूह बैठे हैं चारपाई पर
कुछ और बन पड़ी न सवाल-ए-विसाल पर
वो ख़ुदा जाने घर में हैं कि नहीं