चाहिए थी शम्अ इस तारीक घर के वास्ते
ख़ाना-ए-दिल में चराग़-ए-इश्क़ रौशन हो गया
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दूँगा जवाब मैं भी बड़ी शद्द-ओ-मद के साथ
शिकवों पे सितम आहों पे जफ़ा सौ बार हुई सौ बार हुआ
दिल को तुम शौक़ से ले जाओ मगर याद रहे
मिरा दिल देखो अब या मेरे दुश्मन का जिगर देखो
अभी कम-सिन हैं मालूमात कितनी
यूँ न मेरी बात मानी जाएगी
दिल हमारी तरफ़ से साफ़ करो
महफ़िल में तेरी आ के ये बे-आबरू हुए
ऐ 'नूह' न तर्क-ए-शाएरी हो
अपने अपने रंग में यकता मैं ही मैं हूँ तू ही तू है
मैं किसी शोख़ की गली में नहीं
वो कहते हैं आओ मिरी अंजुमन में मगर मैं वहाँ अब नहीं जाने वाला