भरी महफ़िल में उन को छेड़ने की क्या ज़रूरत थी
जनाब-ए-नूह तुम सा भी न कोई बे-अदब होगा
Wasi Shah
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अभी कम-सिन हैं मालूमात कितनी
इस कम-सिनी में हो उन्हें मेरा ख़याल क्या
आप जिन के क़रीब होते हैं
नूह बैठे हैं चारपाई पर
कोई यहाँ से चल दिया रौनक़-ए-बाम-ओ-दर नहीं
दर्द-ए-फ़िराक़ दिल से जुदा हो तो जानिए
जिगर की चोट ऊपर से कहीं मा'लूम होती है
इश्क़ में मुझ को बिगड़ कर अब सँवरना आ गया
क्या कहूँ हम-नशीं ये मेरा भाग
तुम अपने आशिक़ों से कुछ न कुछ दिल-बस्तगी कर लो
उन से गर फ़ैज़याब हो जाता
अच्छे बुरे को वो अभी पहचानते नहीं