असीरान-ए-क़फ़स को वास्ता क्या इन झमेलों से
चमन में कब ख़िज़ाँ आई चमन में कब बहार आई
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किसी बे-दर्द को ज़ुल्म-ओ-सितम का शौक़ जब होगा
अश्कों के टपकने पर तस्दीक़ हुई उस की
यूँ चले दौर तो रिंदों का बड़ा काम चले
गुलशन में कभी हम सुनते थे वो क्या था ज़माना फूलों का
मैं हूँ ज़ालिम की आन-बान से ख़ुश
कुछ दिनों क़ाएम रहे ऐ मह-जबीं इतनी नहीं
ये मेरे पास जो चुप-चाप आए बैठे हैं
फ़ित्ने दबे-दबाए थे जितने पड़े हुए
तासीर के दो हिस्से अगर हों तो मज़ा है
अहल-ए-उल्फ़त से तने जाते हैं
ग़ैर का इश्क़ है कि मेरा है
मिलना जो न हो तुम को तो कह दो न मिलेंगे