अल्लाह-रे उन के हुस्न की मोजिज़-नुमाईयाँ
जिस बाम पर वो आएँ वही कोह-ए-तूर हो
Habib Jalib
Gulzar
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जब ज़िक्र किया मैं ने कभी वस्ल का उन से
बुलबुल का उड़ाया दिल नाहक़ ये ख़ाम-ख़याली फूलों की
आज आएँगे कल आएँगे कल आएँगे आज आएँगे
मैं हूँ ज़ालिम की आन-बान से ख़ुश
अच्छे बुरे को वो अभी पहचानते नहीं
हमेशा तमन्ना-ओ-हसरत का झगड़ा हमेशा वफ़ा-ओ-मोहब्बत का हुल्लड़
वो घर से चले राह में रुक गए
वो बात क्या जो और की तहरीक से हुई
हुस्न-ए-मुत्लक़ का निशाँ का'बे में तो मिलता नहीं
कोई उस सितमगर को आगाह कर दे कि बाज़ आए आज़ार देने से झट-पट
जो अहल-ए-ज़ौक़ हैं वो लुत्फ़ उठा लेते हैं चल फिर कर
मैं कोई हाल-ए-सितम मुँह से कहूँ या न कहूँ