ऐ 'नूह' न तर्क-ए-शाएरी हो
बे-कार-मबाश कुछ किया कर
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मुझ को दीवाना समझते हैं वो शैदाई भी
दम जो निकला तो मुद्दआ निकला
कुछ और बन पड़ी न सवाल-ए-विसाल पर
अगर उस का मिरा झगड़ा यहीं तय हो तो अच्छा हो
दिल हमारी तरफ़ से साफ़ करो
ऐ 'नूह' तौबा इश्क़ से कर ली थी आप ने
ये मतलब है कि मुज़्तर ही रहूँ मैं बज़्म-ए-क़ातिल में
लैला है न मजनूँ है न शीरीं है न फ़रहाद
ऐ 'नूह' आते जाते हैं दोनों घरों में हम
पूरी न अगर हो तो कोई चीज़ नहीं है
मैं पस-ए-तर्क-ए-मोहब्बत किसी मुश्किल में नहीं
मिरे दिल की ख़ताएँ भी क़यामत हैं क़यामत हैं