उन से गर फ़ैज़याब हो जाता
माहताब आफ़्ताब हो जाता
जा सका मैं न बाम-ए-जानाँ तक
वर्ना आली-जनाब हो जाता
आगे तक़दीर की रसाई थी
मैं वहाँ बारयाब हो जाता
दिल लगाना सवाब था लेकिन
जी छुड़ाना अज़ाब हो जाता
'नूह' होते अगर न शाहिद-बाज़
मैं मुरीद-ए-जनाब हो जाता
Habib Jalib
Jaun Eliya
Faiz Ahmad Faiz
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
Wasi Shah
Allama Iqbal
Parveen Shakir
Rahat Indori
Anwar Masood
Gulzar
Ahmad Faraz
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(360) Peoples Rate This
भरी महफ़िल में उन को छेड़ने की क्या ज़रूरत थी
अल्लाह-रे उन के हुस्न की मोजिज़-नुमाईयाँ
कह रही है ये तिरी तस्वीर भी
मिरी फ़ुग़ाँ में असर है भी और है भी नहीं
ख़ुदा से ज़ुल्म का शिकवा ज़रूर मैं ने किया
शिकवों पे सितम आहों पे जफ़ा सौ बार हुई सौ बार हुआ
कूचा-ए-यार में कुछ दूर चले जाते हैं
बरहमन उस के हैं शैख़ उस के हैं राहिब उस के
किसी बे-दर्द को ज़ुल्म-ओ-सितम का शौक़ जब होगा
हर तलबगार को मेहनत का सिला मिलता है
कुछ दिनों क़ाएम रहे ऐ मह-जबीं इतनी नहीं
रह-ए-तलब में बने वो नश्तर इधर से जाते उधर से आते