क्या वस्ल की उम्मीद मिरे दिल को कभी हो
क्या वस्ल की उम्मीद मिरे दिल को कभी हो
उस शोख़ की तस्वीर भी जब मुझ से खिंची हो
मुझ को न बुलाते हैं न आते हैं मिरे घर
अफ़्सोस है उन से न यही हो न वही हो
ऐ पीर-ए-मुग़ाँ मुझ को तिरे सर की क़सम है
तौबा तो कहाँ तौबा की निय्यत भी जो की हो
वो मुझ से ये कहते हैं कि महशर को मिलूँगा
मैं उन से ये कहता हूँ कि जो कुछ हो अभी हो
ऐ 'नूह' हमें इश्क़ में पर्वा नहीं इस की
आज़ार हो या लुत्फ़ हो ग़म हो कि ख़ुशी हो
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