कब अहल-ए-इश्क़ तुम्हारे थे इस क़दर गुस्ताख़
कब अहल-ए-इश्क़ तुम्हारे थे इस क़दर गुस्ताख़
उन्हें तुम्हीं ने किया छेड़ छेड़ कर गुस्ताख़
बहम ये जम्अ हुए ख़ूब इधर उधर गुस्ताख़
कि दिल भी मेरा है तेरी भी है नज़र गुस्ताख़
हमें मिला भी तो माशूक़ किस तरह का मिला
जफ़ा पसंद बद-अख़लाक़ फ़ित्ना-गर गुस्ताख़
हम अपने दिल से मोहब्बत में बे-ख़बर न रहें
कि है बहुत किसी गुस्ताख़ की नज़र गुस्ताख़
किसी ने मुझ को रुलाया कोई हँसा मुझ पर
जो तू हुआ तो हुआ तेरा घर का घर गुस्ताख़
कहा था मैं ने कि दिल को सज़ाएँ आप न दें
ये पेश-तर से हुआ और बेशतर गुस्ताख़
अदब से काम वो लेते नहीं सर-ए-महफ़िल
यूँ ही हो और कोई दूसरा अगर गुस्ताख़
हम और ज़िक्र-ए-मोहब्बत दिल और शिकवा-ए-ग़म
ख़मोशियों ने तुम्हारी किया मगर गुस्ताख़
मुझे जवाब ये क़ब्ल-अज़-सवाल देने लगा
अब इस से होगा सिवा क्या पयाम्बर गुस्ताख़
दिल-ओ-नज़र को लिहाज़-ओ-हया से क्या मतलब
ये बे-अदब है सरासर वो सर-ब-सर गुस्ताख़
कभी कभी जो तिरी शर्मगीं निगाह मिले
तो मैं बनाऊँ उसे छेड़ छेड़ कर गुस्ताख़
ये तजरबे ने बताया ये आदतों से खुला
वो जिस क़दर है मोहज़्ज़ब उसी क़दर गुस्ताख़
कहीं तुम्हें भी डुबो दे न बहर-ए-उल्फ़त में
बहुत है नूह का तूफ़ान-ए-चश्म-ए-तर गुस्ताख़
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