तक़वा
बहुत अय्यार थे वो लोग
वो सारा दिन ख़ुदा को याद करते
मस्जिदों में जाते
रोते गिड़गिड़ाते और तस्बीहें पढ़ा करते
ज़माना मो'तक़िद था इस क़दर उन का
वो जब बाहर निकलते
लोग उन के रास्ते की गर्द को
अपने अमामों से हटाते थे
उन की ख़ातिर ख़्वान पर नेमत सजाते थे
मगर
जब रात आती और अंधेरे हर दर ओ दीवार पर
ख़ेमे अपने नसब कर लेते
डाकुओं का भेस
लूट लेते आबरू
माल ओ ज़र लाल ओ गुहर
और फिर वो सुब्ह-दम
सिद्क़ ओ सफ़ा का दर्स देते
और सब्र-ओ-रज़ा की शहर को तल्क़ीन करते
और फिर मसरूफ़ हो जाते
इबादत में वो अपनी
उन्हें शद्दाद की जन्नत
इलाही की रज़ा से चाहिए थी
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