नए चराग़ की लौ पाँव से लिपटती है
नए चराग़ की लौ पाँव से लिपटती है
मगर वो रात कहाँ रास्ते से हटती है
मैं ख़ानक़ाह-ए-बदन से उदास लौट आया
यहाँ भी चाहने वालों में ख़ाक बटती है
ज़रा सा सच भी किसी से कहा नहीं जाता
ज़रा सी बात पे गर्दन हमारी कटती है
ये किस के पाँव रखे हैं हवा के सीने पर
अगर मैं साँस भी लेता हूँ उम्र घटती है
अभी बहुत हैं अंधेरों को पूजने वाले
यहाँ चराग़ बुझाओ तो रात कटती है
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