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तार की झंकार ही से बज़्म थर्रा जाए है - नियाज़ फ़तेहपुरी कविता - Darsaal

तार की झंकार ही से बज़्म थर्रा जाए है

तार की झंकार ही से बज़्म थर्रा जाए है

गाहे गाहे साज़-ए-हस्ती यूँ भी छेड़ा जाए है

क़ाफ़िला छूटे ज़माना हो गया लेकिन हनूज़

याद-ए-आवाज़-ए-जरस रह रह के तड़पा जाए है

ख़ुद ज़माना रुख़ हमारा देखता है हम नहीं

जिस तरफ़ मुड़ते हैं हम धारा भी मुड़ता जाए है

सर जो गर्दन पर नहीं तो क्या हथेली पर सही

मंज़िल-ए-इश्क़-ओ-जुनूँ से यूँही गुज़रा जाए है

हम कहाँ डूबे थे ये कल पूछिएगा आज तो

कुछ तलातुम सा अभी मौजों में पाया जाए है

अक़्ल वालो कुछ कहो ये रिश्ता-ए-राज़-ए-हयात

क्यूँ उलझता जाए है जितना कि खुलता जाए है

आ रहा हूँ दोस्तो ठहरो मगर ये तो बताओ

मुझ को किस गोशे से सहरा के पुकारा जाए है

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In Hindi By Famous Poet Niyaz Fatehpuri. is written by Niyaz Fatehpuri. Complete Poem in Hindi by Niyaz Fatehpuri. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.