सिर्फ़ इक लर्ज़िश है नोक-ए-ख़ार पर शबनम की बूँद
सिर्फ़ इक लर्ज़िश है नोक-ए-ख़ार पर शबनम की बूँद
फिर भी इस फ़ुर्सत पर उस की मुझ को रश्क आ जाए है
मेरी तन्हाई न पूछो जैसे कोई नक़्श-ए-पा
दूर सहरा के किसी गोशे में पाया जाए है
संग क्या है बस सरापा इंतिज़ार-ए-बुत-तराश
ज़िंदगी का ख़्वाब लोगो यूँ भी देखा जाए है
शब का वो पिछ्ला पहर और फीकी फीकी चाँदनी
रात बस कर जैसे कोई हार कुम्हला जाए है
रात की तन्हाइयाँ और उन की आमद का ख़याल
चाँद जैसे रूह के अंदर से गुज़रा जाए है
इस सही क़द का ख़िराम-ए-नाज़ वो फ़ित्ना है जो
हर क़दम पर इक नए साँचे में ढलता जाए है
अब ये हाल-ए-दिल है जैसे रख के काँटों पर 'नियाज़'
रेशमी चादर को बेदर्दी से खींचा जाए है
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