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तेरी नज़रों से यार उतर जाऊँ - कविता - Darsaal

तेरी नज़रों से यार उतर जाऊँ

तेरी नज़रों से यार उतर जाऊँ

इस से बेहतर ये है कि मर जाऊँ

मैं भी अब क्या करूँ ऐ मेरे रक़ीब

मेरी फ़ितरत नहीं कि डर जाऊँ

गर तू दस्तार माँग ले मुझ से

तेरे क़दमों में दे के सर जाऊँ

फिर कोई और ही बनूँ आख़िर

टूट जाऊँ तो इस क़दर जाऊँ

तू भी बे-शक नज़र घुमा लेना

मैं अगर फेर कर नज़र जाऊँ

तू मुझे छोड़ कर नहीं जाना

मैं तुझे छोड़ कर अगर जाऊँ

उपर उपर तो पार जा न सका

सोचता हूँ भँवर भँवर जाऊँ

हाथ ख़ाली हैं चश्म तर है मेरी

अब तू ही बोल कैसे घर जाऊँ

यूँ मोअ'त्तर करूँ फ़ज़ा 'नायाब'

ख़ुशबुओं की तरह बिखर जाऊँ

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