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फिर ये मुमकिन ही नहीं है कि सँभालो मुझ को - कविता - Darsaal

फिर ये मुमकिन ही नहीं है कि सँभालो मुझ को

फिर ये मुमकिन ही नहीं है कि सँभालो मुझ को

इक ज़रा क़ैद से बाहर तो निकालो मुझ को

इस हक़ीक़त की भी आमद हो मिरे हुजरे में

छोड़ के जाओ कभी ख़्वाबो ख़यालो मुझ को

जिस्म को दर्द में हँसने का हुनर आता है

इल्तिजा ये है कि पत्थर में न ढालो मुझ को

मैं ने पाबंदी लगा दी है ज़बाँ पर वर्ना

मुद्दआ' चीख़ रहा है कि उछालो मुझ को

तब तलक कूज़ा-गरो ख़्वाब है ता'बीर मिरी

जब तलक पूरी तरह तोड़ न डालो मुझ को

मावरा हूँ मैं हर इक लफ़्ज़-ए-सुख़न से जो मुझे

तुम को पढ़ना है तो फिर सोच में ढालो मुझ को

लो मैं करता हूँ मिरी ख़ाक तुम्हारे ही सिपुर्द

जैसी दरकार हो वैसा ही बना लो मुझ को

पहले मलबे को मिरे साफ़ करो ऊपर से

फिर मिरी ख़ाक के नीचे से निकालो मुझ को

आँखें नेज़े पे टिके देख के अपनी 'नायाब'

बोल उठे ख़्वाब भी अब तो कि न पालो मुझ को

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