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नूर अँधेरे की फ़सीलों पे सजा देता हूँ - कविता - Darsaal

नूर अँधेरे की फ़सीलों पे सजा देता हूँ

नूर अँधेरे की फ़सीलों पे सजा देता हूँ

मैं सियाह-बख़्त चराग़ों को जला देता हूँ

पहले इक जिस्म बनाता हूँ किसी फूल पे फिर

एक चेहरा किसी पत्थर पे बना देता हूँ

दिन निकलते ही किसे ढूँडने जाता हूँ मैं

रात के पिछले पहर किस को सदा देता हूँ

एक अर्से से ग़म-ए-हिज्र में मसरूफ़ है तू

आ मिरे दिल में तुझे काम नया देता हूँ

मुझ सा सादे भी कोई होगा ज़माने में कि मैं

अपने क़ातिल को भी उम्रों की दुआ देता हूँ

बहते दरिया का बदन ढाँक के ख़ुश्क आँखों से

मोम के क़ल्ब को पत्थर कि क़बा देता हूँ

मुस्तक़िल राह-ए-सुख़न का हूँ मुसाफ़िर 'नायाब'

गर थकन लिख दूँ वरक़ पर तो मिटा देता हूँ

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