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जब जब मैं ज़िंदगी की परेशानियों में था - कविता - Darsaal

जब जब मैं ज़िंदगी की परेशानियों में था

जब जब मैं ज़िंदगी की परेशानियों में था

अपनों के बावजूद भी तन्हाइयों में था

आबादियों ने सारे भरम ही मिटा दिए

इस से ज़ियादा ख़ुश तो मैं वीरानियों में था

साहिल पे जो खड़े थे उन्हें मौज ले गई

मैं बच गया कि यार मैं तुग़्यानियों में था

आसानियों में ज़ीस्त ही बे-कैफ़ हो गई

जीने का अस्ल लुत्फ़ तो दुश्वारियों में था

करता भी क्या किसी से शिफ़ा की कोई उमीद

सारा का सारा शहर ही बीमारियों में था

जो सादा-लौह थे वो नशेबों में रह गए

चालाक जो भी शख़्स था ऊँचाइयों में था

कुछ आप ही ने ग़ौर से डाली नहीं नज़र

मेरा भी नाम आप के शैदाइयों में था

बातें तो सत्ह पर यूँ बहुत सी हुईं मगर

मेरा दिमाग़ झील की गहराइयों में था

'नायाब' भाई बन के गले जो मिला था कल

उस शख़्स का शुमार भी दंगाइयों में था

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