एक भी पत्थर न आया राह में
नींद में हम उम्र भर चलते रहे
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रात अब अपने इख़्तिताम पे है
उन का दीदार मेरी क़िस्मत में
मिला है अपने होने का निशाँ इक
बढ़ गया मोल ज़िंदगानी का
हिफ़ाज़त हर किसी की वो बड़ी ख़ूबी से करता है
मैं एक पल में अँधेरे से हार जाऊँगा
ब-ज़ाहिर दश्त की जानिब तो बढ़ता जा रहा है
चूड़ियाँ क्यूँ उतार दीं तुम ने
तेरे हिस्से का बच गया है कुछ
ज़ेर-ए-लब हम ने तिश्नगी कर ली
हसरतों को न ज़ेहन रुस्वा करें
यूँ तो मेरा सफ़र था सहरा तक