रह-ए-वफ़ा के हर इक पेच-ओ-ख़म को जान लिया
रह-ए-वफ़ा के हर इक पेच-ओ-ख़म को जान लिया
जुनूँ में दश्त ओ बयाबाँ तमाम छान लिया
हर इक मक़ाम से हम सुर्ख़-रू गुज़र आए
क़दम क़दम पे मोहब्बत ने इम्तिहान लिया
गिराँ हुई थी ग़म-ए-ज़िंदगी की धूप मगर
किसी की याद ने इक शामियाना तान लिया
तुम्हीं को चाहा बहर-हाल और तुम्हारे सिवा
ज़मीन माँगी किसी से न आसमान लिया
ब-एहतियात चले राह-ए-ज़िंदगी फिर भी
जगह जगह हमें गर्द-ए-सफ़र ने आन लिया
वो बुत भी दुश्मन-ए-ईमान-ओ-आगही था मगर
उसे जो देखा तो हम ने ख़ुदा को मान लिया
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