मोहर-ब-लब है किस लिए, किस लिए बोलता नहीं
मोहर-ब-लब है किस लिए, किस लिए बोलता नहीं
ऐ दिल-ए-बे-तलब! बता क्या कोई मुद्दआ नहीं
अहल-ए-जुनूँ को अब के भी इज़्न-ए-जुनूँ मिला नहीं
अब के बरस भी बाग़ में फूल कोई खिला नहीं
अपना क़ुसूर है तो ये, और कोई ख़ता नहीं
हम ने फ़क़ीह-ए-शहर को माना कभी ख़ुदा नहीं
ये तो हुआ कि रौशनी और भी कुछ भड़क उठी
तेज़ हवा के बावजूद दिल का दिया बुझा नहीं
राह-ए-तलब में आज तक अहल-ए-तलब का क़ाफ़िला
यूँ ही रवाँ-दवाँ रहा और कभी थका नहीं
किस से तलब करें भला ख़ून का अपने ख़ूँ-बहा
अपने अलावा और कोई अपना हरीफ़ था नहीं
दिल का अजीब रंग है और वो शख़्स संग है
ता-ब-निगाह दूर तक जिस का कोई पता नहीं
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