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ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रहगुज़ार में हैं - निकहत बरेलवी कविता - Darsaal

ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रहगुज़ार में हैं

ग़ुबार-ए-राह के मानिंद रहगुज़ार में हैं

हमारा क्या है भला हम भी किस शुमार में हैं

अगर वो ग़ैर के हाथों में खेलते हैं तो क्या

हम अपने आप भी कब अपने इख़्तियार में हैं

हमारा आलम-ए-हसरत भी है अजीब कि हम

गुज़र गए हैं जो दिन उन के इंतिज़ार में हैं

ज़माना अपनी हदों से निकल के फैल गया

और एक हम कि अभी अपने ही हिसार में हैं

ये अपना शहर अंधेरों का शहर है शायद

बड़े अज़ाब यहाँ रौशनी से प्यार में हैं

वो जान-ए-बज़्म गया रौनक़ें तमाम हुईं

ये लोग किस लिए बैठे हैं किस ख़ुमार में हैं

अजब फ़ज़ाएँ हैं 'निकहत' खुला न कुछ हम पर

ये अपना घर है कि मैदान-ए-कार-ज़ार में हैं

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In Hindi By Famous Poet Nikhat Barelvi. is written by Nikhat Barelvi. Complete Poem in Hindi by Nikhat Barelvi. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.