ऐ मौज-ए-सबा सोज़-ए-मुजस्सम उसे कहना
ऐ मौज-ए-सबा सोज़-ए-मुजस्सम उसे कहना
मुमकिन है वो पूछे मिरा आलम उसे कहना
चाहा मिरे हालात ने पैहम उसे कहना
लेकिन न हुई प्यार की लौ कम उसे कहना
इक हम ही नहीं शाकी-ए-आलम उसे कहना
अब अहल-ए-तरब को भी है ये ग़म उसे कहना
शायद कभी पड़ जाए किसी तौर ज़रूरत
मिलते हैं सर-ए-राहगुज़र हम उसे कहना
तू किस लिए नाराज़ हुआ अहल-ए-वफ़ा से
दुनिया तो हमेशा से है बरहम उसे कहना
कहना तो बहुत कुछ है मगर मस्लहत-ए-वक़्त
बे-आब से हैं शोला-ओ-शबनम उसे कहना
माना कि मिरे दम से नहीं बज़्म की रौनक़
फिर भी तो ग़नीमत है मिरा दम उसे कहना
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