ज़िंदगी ज़हर का इक जाम हुई जाती है
ज़िंदगी ज़हर का इक जाम हुई जाती है
क्या से क्या ये मय-ए-गुलफ़ाम हुई जाती है
कुछ गुज़ारी है ग़म-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में हयात
कुछ सुपुर्द-ए-ग़म-ए-अैय्याम हुई जाती है
फिर किसी मर्द-ए-बराहीम का मोहताज है दहर
फिर वही कसरत-ए-असनाम हुई जाती है
हवस-ए-सैर-ए-तमाशा है कि होती नहीं ख़त्म
ज़िंदगी है कि सुबुक-गाम हुई जाती है
जो कभी ख़ालिक़-ए-हंगामा-ए-तूफ़ाँ थी वो मौज
हैफ़ ख़ू-कर्दा-ए-आराम हुई जाती है
सोहबत-ए-पीर-ए-मुग़ाँ में ये खुली अज़्मत-ए-इश्क़
अक़्ल भी दुर्द-ए-तह-ए-जाम हुई जाती है
तुम जो आए हो तो शक्ल-ए-दर-ओ-दीवार है और
कितनी रंगीन मिरी शाम हुई जाती है
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