उड़ा लिए हैं कुछ अरबाब-ए-गुलिस्ताँ ने तो क्या
उड़ा लिए हैं कुछ अरबाब-ए-गुलिस्ताँ ने तो क्या
हज़ार शेवा-ए-नौ हैं मिरी फ़ुग़ाँ के लिए
ज़मीन-ए-कूचा-ए-जानाँ से आ रही है सदा
बुलंदियाँ नहीं मख़्सूस आसमाँ के लिए
है ख़त्म हौसला-मंदी वजूद-ए-आदम पर
सतीज़ा-ए-कार है फ़तह-ए-ग़म-ए-जहाँ के लिए
है सख़्त बे-अदबी गर कहे फ़साना-ए-इश्क़
हर एक बात मुनासिब नहीं ज़बाँ के लिए
अँधेरी रात थकी हिम्मतें कड़ी मंज़िल
सलामती की दुआ माँग कारवाँ के लिए
सजाई फ़िक्र-ए-दरख़्शाँ ने मेरी बज़्म-ए-नुजूम
थी मुंतज़िर ये ज़मीं नाज़-ए-आसमाँ के लिए
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