पिघलता धुआँ
दूर शादाब पहाड़ी पे बना इक बंगला
लाल खपरैलों पे फैली हुई अँगूर की बेल
सेहन में बिखरे हुए मिट्टी के राजा-रानी
मुँह चिढ़ाती हुई बच्चों को कोई दीवानी
सेब के उजले दरख़्तों की घनी छाँव में
पाँव डाले हुए तालाब में कोई लड़की
गोरे हाथों में सँभाले हुए तकिए का ग़िलाफ़
अन-कही बातों को धागों में सिए जाती है
दिल के जज़्बात का इज़हार किए जाती है
गर्म चूल्हे के क़रीं बैठी हुई इक औरत
एक पैवंद लगी साड़ी से तन को ढाँपे
धुँदली आँखों से मिरी सम्त तके जाती है
मुझ को आवाज़ पे आवाज़ दिए जाती है
इक सुलगती हुई सिगरेट का बल खाता धुआँ
फैलता जाता है हर सम्त मिरे कमरे में
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