तुम्हारे ज़ेहन में गर खलबली है
तुम्हारे ज़ेहन में गर खलबली है
बहुत पुर-लुत्फ़ फिर ये ज़िंदगी है
अजब ये दौर आया है कि जिस में
ग़लत कुछ भी नहीं सब कुछ सही है
मुसलसल तीरगी में जी रहे हैं
ये कैसी रौशनी हम को मिली है
मुकम्मल ख़ुद को जो भी मानता है
यक़ीं माने बहुत उस में कमी है
जुदा तुम भीड़ से होकर तो देखो
अलग राहों में कितनी दिलकशी है
समुंदर पी रहा है हर नदी को
कहो ये है हवस या तिश्नगी है
नहीं आती है 'नीरज' हाथ जो भी
हर इक वो चीज़ लगती क़ीमती है
(460) Peoples Rate This