ज़िंदगी से मिले हुए हो तुम
वो भी मुझ से मज़ाक़ करती है
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कितने आलम गुज़र गए मुझ पर
और फिर मोहब्बत में जी के मर के देखा है
हवा का रंग नहीं है मगर मिज़ाज तो है
संग-दिल
अपनी आँखों को नोच डाला है
ला-इल्मी
चिंगारियों का रक़्स
वजूद कर्ब से आगे
आधी मोहब्बत
सुकूत-ए-शहर-ए-दिल की बेबसी को भी कोई समझे
सारे जज़्बे तिरी चाहत के दिखाई देते
हवस