वजूद कर्ब से आगे
मैं जौहर पर मुक़द्दम हूँ
मिरे पावँ की बेड़ी ये ज़माना बन नहीं सकता
न ही महदूद हूँ और ना-गहानी भी नहीं हूँ मैं
मुक़द्दर था मिरा माज़ी
मगर मैं हाल, मुस्तक़बिल का सौदा सर में रखती हूँ
मैं ही तो मरकज़ी किरदार हूँ अपनी कहानी का
असासी कुछ नहीं है
मंतिक़ी ना जौहरी कुछ है
मैं ख़ुद में डूब कर तश्कील-ए-नौ करती हूँ ख़ुद अपनी
में ख़ुद तख़्लीक़ करती हूँ
मकाँ के म'अनी-ओ-मफ़्हूम
सच्चाई मुझ से फूटी है
मैं सच्ची हूँ मगर दुनिया ये झूटी है
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