एक लम्हा मुहीत-ए-आलम है
दस्तरस में कई ज़माने हैं
सोच का इक घना सा जंगल है
और इस में फ़क़त ख़ज़ाने हैं
इन ख़यालों में क़ैद हूँ कब से
ये रिहाई के कुछ बहाने हैं
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अपनी आँखें नहीं जलाऊंगी
सुकूत-ए-शहर-ए-दिल की बेबसी को भी कोई समझे
गुनाह
सीने से दिल निकाल के हाथों पे रख दिया
रिहाई
चिंगारियों का रक़्स
गुड़िया
फूलों की ज़द में आ के कहीं जान से न जाए
अपनी आँखों को नोच डाला है
च्यूंटियाँ
मिरे सीने से लग कर देर तक रोती है तन्हाई