कफ़न उस की रिदाओं का
तअफ़्फ़ुन है सदाओं का
कि हंगामा सा बरपा है
ख़मोशी की अदाओं का
सुलगती है
सिसकती है
क़यामत सी गुज़रती है
जो लम्हात-ए-जुदाई को
किसी उजली सी चादर में उठाते हैं
ज़मीं में जैसे मुर्दे को दबा कर लौट आते हैं
मगर वो भूल जाते हैं
ये क़ब्रें हिज्र की नीली
हमेशा गीली रहती हैं