मैं अपने आप को रोकूँ कहाँ तक
फ़ुग़ाँ जाती है मेरी ला-मकाँ तक
तिरे क़दमों की आहट गूँजती है
वहीं तक मैं गई हूँ तू जहाँ तक
नज़ारा भी हसीं था क़ुर्बतों का
धनक फैली ज़मीं से आसमाँ तक
जहाँ पे तीरगी भी रौशनी हो
कभी देखा है तुम ने क्या वहाँ तक
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और फिर मोहब्बत में जी के मर के देखा है
ख़ुदी का राज़
हवस
चिंगारियों का रक़्स
मिरी मोहब्बत भी नीलगूं है
ख़ुद-फ़रेबी रहे तो अच्छा है
फूलों की ज़द में आ के कहीं जान से न जाए
किसी को याद करने के नहीं मख़्सूस कुछ लम्हे
तुम को खोया था एक लग़्ज़िश में
संग-दिल
आगही