नज़र जब से किसी की मेहरबाँ मा'लूम होती है
नज़र जब से किसी की मेहरबाँ मा'लूम होती है
ये दुनिया गुल्सिताँ-दर-गुल्सिताँ मा'लूम होती है
सज़ा हर जुर्म की मंज़ूर है मुझ को मगर ये क्या
कि हर लग़्ज़िश पे फ़ितरत हम-ज़बाँ मा'लूम होती है
वहाँ अपना सफ़ीना ले चली हूँ मैं डुबोने को
जहाँ हर मौज बहर-ए-बे-कराँ मा'लूम होती है
गए वो दिन की लुत्फ़ आता था काँटों से उलझने में
हँसी भी अब तो फूलों की गराँ मा'लूम होती है
ये किस जन्नत में ले आया है पैमान-ए-वफ़ा दिल को
कि हर सूरत यहाँ आराम-ए-जाँ मा'लूम होती है
जो गुज़री है किसी के साथ इस उम्र-ए-दो-रोज़ा में
वो साअ'त नाज़-ए-उम्र-ए-जावेदाँ मा'लूम होती है
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