साक़ी नामा
नहीं ये अहद और है साक़ी
अहल-ए-यूरोप का दौर है साक़ी
की है कोशिश उन्हों ने ख़ातिर-ख़्वाह
पाई है मुद्दतों में हिन्द की राह
कर के ज़हमत जो आए इतनी दूर
महज़ तरवीज-ए-बादा थी मंज़ूर
जो मुसलमाँ हैं उम्मत-ए-अंग्रेज़
मय-कशी से उन्हें नहीं परहेज़
बादा-ख़्वारी का शग़्ल घर घर है
और ताड़ी तो शीर-ए-मादर है
पहले पासी चमार पीते थे
मरदुम-ए-बे-वक़ार पीते थे
अब तो अहल-ए-उलूम पीते हैं
माहियान-ए-रुसूम पीते हैं
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