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नज़्म - नाज़िश रिज़वी कविता - Darsaal

नज़्म

मिले कचेहरी में इक रोज़ शैख़ ख़ैराती

है इक ज़माने से उन की मिरी अलैक सलैक

नहीं है झूटी गवाही से इज्तिनाब उन्हें

किया न आज तक इस पर मगर किसी ने अटैक

अलावा इस के अमीरों के हैं ये सप्लायर

कि माल करते हैं ये उन की हस्ब-ए-मंशा पैक

हो जिस में फ़ाएदा वो काम कर गुज़रते हैं

कभी फ़्रंट में जा कर नहीं हैं होते बैक

हिजाज़ जाते हैं हर साल सोना लाने को

ये बिज़नेस आज तक इन की कभी हुई न सलैक

ये हज के दिन भी हैं लब्बैक के एवज़ कहते

ख़ुदा के घर में फ़क़त रब्बना ब्लैक ब्लैक

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