ख़ुदा ऐ काश 'नाज़िश' जीते-जी वो वक़्त भी लाए
कि जब हिन्दोस्तान कहलाएगा हिन्दोस्तान-ए-आज़ादी
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कुछ दूर साथ गर्दिश-ए-शाम-ओ-सहर गई
जवानो नज़्र दे दो अपने ख़ून-ए-दिल का हर क़तरा
यूँ लोग चौंक चौंक कर उँगली उठाए हैं
ज़िक्र-ए-नशात ख़ल्वत-ए-ग़म में बुरा लगे
न होगा राएगाँ ख़ून-ए-शहीदान-ए-वतन हरगिज़
वो समझता है उसे जो राज़-दार-ए-नग़्मा है
बे-चेहरगी-ए-ग़म से परेशान खड़े हैं
दिल-ए-ख़ुलूस-गज़ीदा को कोई क्या जाने
आह को नग़्मा कि नग़्मे को फ़ुग़ाँ करना पड़े
आप के इल्तिफ़ात का ग़म हो
तलबगार मर्द था