पसीना मेरी मेहनत का मिरे माथे पे रौशन था
चमक लाल-ओ-जवाहर की मिरी ठोकर पे रक्खी थी
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सवाद-ए-शाम-ए-ग़म में यूँ तो देर तक जला चराग़
कर लिया महफ़ूज़ ख़ुद को राएगाँ होते हुए
घर से अब बाहर निकलने में भी घबराते हैं हम
मक़्तल से मेरा कासा-ए-सर कौन ले गया
मंज़िल के दूर दूर तक आसार तक भी नहीं
शाख़ पे चिड़िया गाती है
फ़सील-ए-जाँ पे रक्खी थी न बाम-ओ-दर पे रक्खी थी
तलातुम-ख़ेज़ मंज़र हो गई हैं
फ़ज़ा-ए-तीरा-शबी का हिसाब करना है