सुकूत-ए-लब को शिकस्ता-दिली समझते हैं
सुकूत-ए-लब को शिकस्ता-दिली समझते हैं
ये कम-निगाह फ़रेब-ए-ख़ुदी समझते हैं
जो तीरगी में भटकते हैं रहनुमा हैं वो
जो रौशनी है उसे तीरगी समझते हैं
निज़ाम-ए-कोहना का पढ़ते हैं वो क़सीदा फिर
जो रक़्स-ए-मौत को भी ज़िंदगी समझते हैं
तबस्सुम-ए-लब-ए-जानाँ से खेलने वाले
ग़म-ए-वफ़ा को ग़म-ए-ज़िंदगी समझते हैं
सजाए जाते हैं दामन को आज काँटों से
ख़याल-ए-गुल को मता-ए-कली समझते हैं
जुनूँ की दाद भुला देंगे क्या ख़िरद के ग़ुलाम
जो ज़िंदा-दिल हैं उसे ज़िंदगी समझते हैं
ये ज़र्फ़ अपना है 'नाज़िर' कि इस ज़माने ने
जो ग़म दिया है उसे हम ख़ुशी समझते हैं
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