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सुकूत-ए-लब को शिकस्ता-दिली समझते हैं - नाजिर अल हुसैनी कविता - Darsaal

सुकूत-ए-लब को शिकस्ता-दिली समझते हैं

सुकूत-ए-लब को शिकस्ता-दिली समझते हैं

ये कम-निगाह फ़रेब-ए-ख़ुदी समझते हैं

जो तीरगी में भटकते हैं रहनुमा हैं वो

जो रौशनी है उसे तीरगी समझते हैं

निज़ाम-ए-कोहना का पढ़ते हैं वो क़सीदा फिर

जो रक़्स-ए-मौत को भी ज़िंदगी समझते हैं

तबस्सुम-ए-लब-ए-जानाँ से खेलने वाले

ग़म-ए-वफ़ा को ग़म-ए-ज़िंदगी समझते हैं

सजाए जाते हैं दामन को आज काँटों से

ख़याल-ए-गुल को मता-ए-कली समझते हैं

जुनूँ की दाद भुला देंगे क्या ख़िरद के ग़ुलाम

जो ज़िंदा-दिल हैं उसे ज़िंदगी समझते हैं

ये ज़र्फ़ अपना है 'नाज़िर' कि इस ज़माने ने

जो ग़म दिया है उसे हम ख़ुशी समझते हैं

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In Hindi By Famous Poet Nazir Al-Husaini. is written by Nazir Al-Husaini. Complete Poem in Hindi by Nazir Al-Husaini. Download free  Poem for Youth in PDF.  is a Poem on Inspiration for young students. Share  with your friends on Twitter, Whatsapp and Facebook.