ज़ख़्म-ए-उल्फ़त अयाँ नहीं होता
ज़ख़्म-ए-उल्फ़त अयाँ नहीं होता
आँख से ख़ूँ रवाँ नहीं होता
हुस्न को सिर्फ़ वहम है वर्ना
इश्क़ तो बद-गुमाँ नहीं होता
कोई मंज़िल भला क़दम चूमे
अज़्म जब तक जवाँ नहीं होता
देखिए तो नक़ाब उलट के ज़रा
चाँद कब तक अयाँ नहीं होता
देख कर ग़म-ज़दा से कुछ चेहरे
दर्द-ए-दिल क्यूँ अयाँ नहीं होता
कोह-ओ-सहरा हो दश्त-ए-ऐमन हो
गुज़र अपना कहाँ नहीं होता
फूल कैसे वहाँ न ख़ार लगें
ज़िक्र तेरा जहाँ नहीं होता
मैं तो क्या दिल भी मेरा उस का है
जो कभी मेहरबाँ नहीं होता
ज़ोर-ए-तूफ़ाँ है दूर साहिल है
नाख़ुदा मेहरबाँ नहीं होता
राज़-दाँ किस को किस तरह समझूँ
राज़-ए-दिल तो बयाँ नहीं होता
शेरियत शे'र में हो कैसे 'नज़ीर'
ज़ेहन जब तक रवाँ नहीं होता
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