उमँड रही हैं घटाएँ कि ज़ुल्फ़ बरहम है
उमँड रही हैं घटाएँ कि ज़ुल्फ़ बरहम है
छलक रहा है जो ख़ुम है कि आँख पुर-नम है
नशात-ए-ज़ीस्त मयस्सर नहीं तो क्या शिकवा
मुझे हयात से बढ़ कर हयात का ग़म है
फिर आज गर्दिश-ए-दौराँ से मात खाई है
बिसात-ए-दिल ही उलट दो कि हौसला कम है
ठहर न जाए कहीं नब्ज़-ए-गर्दिश-ए-दौराँ
तिरी निगाह-ए-करम का कुछ और आलम है
न शोर-ए-नग़्मा न रक़्स-ए-सुबू न ख़ंदा-ए-गुल
चमन में आज निगार-ए-चमन का मातम है
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