कहीं ठहर के न रह जाएँ धड़कनें दिल की
मिज़ाज-ए-दोस्त है आमादा बरहमी के लिए
नशात-ए-ज़ीस्त मयस्सर नहीं तो क्या ग़म है
ग़म-ए-हयात ही काफ़ी है ज़िंदगी के लिए
बहार-ए-नौ ने तबस्सुम गुलों से छीन लिया
चमन में फूल तरसते हैं इक हँसी के लिए
Habib Jalib
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उमँड रही हैं घटाएँ कि ज़ुल्फ़ बरहम है
फ़ज़ा-ए-लाला-ओ-गुल में वो ताज़गी न रही