रुख़्सत अभी ज़ुल्मतों का डेरा कर दूँ
नापैद जहाँ से अंधेरा कर दूँ
सूरज के निकलने में तो है देर अभी
पैमाना उठा दो तो सवेरा कर दूँ
Faiz Ahmad Faiz
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वो जो बिछड़े मौत याद आने लगी
पेशानी पे सय्याल नगीना क्यूँ है
करम जब आम है साक़ी तो फिर तख़सीस ये कैसी
छब्बीस जनवरी
हमारे अहल-ए-चमन हम से सरगिराँ तो नहीं
हुए मुझ से जिस घड़ी तुम जुदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
इस वक़्त ग़ज़ल की बात न कर
पंद्रह अगस्त
जी में आता है कि दें पर्दे से पर्दे का जवाब
बद-गुमानी को बढ़ा कर तुम ने ये क्या कर दिया
हम उन के दर पे न जाते तो और क्या करते
तुम नैन के दोनों पट मेरे लिए वा रखना