लिल्लाह मिरी सोज़िश-ए-पैहम को न छेड़
जा राह ले अपनी तपिश-ए-ग़म को न छेड़
मैं ने तिरी जन्नत को कभी छेड़ा है
तू भी मिरे ख़ामोश जहन्नम को न छेड़
Mohsin Naqvi
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एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
मालूम कि इंसान किसे कहते हैं
साहिल पे अगर मिरा सफ़ीना आ जाए
गंगा के किनारे
ये इनायतें ग़ज़ब की ये बला की मेहरबानी
अंधेरा माँगने आया था रौशनी की भीक
हर साँस में इक हश्र बपा है वाइ'ज़
मिरे टूटे हुए दिल की सदा से खेलने वाले
निगाह ओ दिल भी क़दम की तरह मिला के चले
दिन ढला जाता है शाम आती है घबराता हूँ मैं
ये जल्वा-गह-ए-ख़ास है कुछ आम नहीं है