खुलती हैं वो मस्त आँखें हंगाम-ए-सहर ऐसे
तालाब में रातों को खिलते हों कँवल जैसे
उस तरह से हँसती हैं मासूम तमन्नाएँ
जिस तरह से बच्चों के हाथों में नए पैसे
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गंगा के किनारे
हुए मुझ से जिस घड़ी तुम जुदा तुम्हें याद हो कि न याद हो
'प्रेमचंद' एक था एक से इक जहाँ बन गया
और तो कुछ न हुआ पी के बहक जाने से
आह गाँधी
करम जब आम है साक़ी तो फिर तख़सीस ये कैसी
एक झोंका इस तरह ज़ंजीर-ए-दर खड़का गया
बेबादा भी ग़म से दूर हो जाता हूँ
तूफ़ाँ से थपेड़ों के सहारे निकल आए
मिरे टूटे हुए दिल की सदा से खेलने वाले
उम्र भर की बात बिगड़ी इक ज़रा सी बात में